खून को क्या हो गया है
>> Wednesday, 20 July 2011
'ग़ज़ल'
खून को क्या हो गया है
- कुमार शिव
एड़ियों को पुतलियों को उंगलियों को देख लें
आओ इस जर्जर शहर की पसलियों को देख लें
खून को क्या हो गया है क्यों नहीं आता उबाल
बंद गलियों की नसों को धमनियों को देख लें
देखने को जब यहाँ कुछ भी नहीं है तो चलो
खिलखिलाती थीं कभी उन खिड़कियों को देख लें
अब कहाँ वो सुरमई आखें वो चेहरे संदली
वक़्त बूढ़ा हो चला है झुर्रियों को देख लें
बहुत मुमकिन है बचे हों कुछ कटे सर और भी
आओ हम अच्छी तरह से बस्तियों को देख लें
3 comments:
बहुत मुमकिन है बचे हों कुछ कटे सर और भी
आओ हम अच्छी तरह से बस्तियों को देख लें
अच्छी लगी।
खून को क्या हो गया है, क्यों नहीं आता उबाल
बंद गलियों की नसों को, धमनियों को देख लें
क्या सुंदर अभिव्यक्ति है.दिल को सकूँ मिल गया.
गुरुवर जी, आपको उपरोक्त पोस्ट दुबारा उसी शीर्षक से और उसी ब्लॉग पर दुबारा क्यों लगाने की आवश्कता महसूस हुई. मैं यह नहीं जानता मगर कोई कारण जरुर होगा. फिर भी आप एक पोस्ट अपने नाचीज़ शिष्य की जरुर देखे."प्रिंट व इलेक्ट्रोनिक्स मीडिया को आईना दिखाती एक पोस्ट"
गुरुवर जी, मुझे लगता है आप आज अपनी "ब्लॉग कचहरी" में नहीं गए. इसके कारण आपके आर्शिर्वाद की कृपया दृष्टि से वंचित रह गया. कृपया अपनी "ब्लॉग कचहरी" पर नज़ारे इनायत करें.
सच में बहुत कुछ देखना होगा।
क्या थे और क्या हो गये अभी।
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