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>> Wednesday, 27 July 2011

'ग़ज़ल'

दर्द कई चेहरे के पीछे थे

  •  कुमार 'शिव'


शज़र हरे  कोहरे के पीछे थे
दर्द कई  चेहरे के पीछे थे

बाहर से दीवार हुई थी नम
अश्क कई  कमरे के पीछे थे

घुड़सवार दिन था आगे  और हम
अनजाने खतरे के पीछे थे

धूप, छाँव, बादल, बारिश, बिजली
सतरंगे गजरे के पीछे थे

नहीं मयस्सर था दीदार हमें
चांद, आप पहरे के पीछे थे

काश्तकार बेबस था, क्या करता
जमींदार खसरे के पीछे थे


खून को क्या हो गया है

>> Wednesday, 20 July 2011



'ग़ज़ल'

खून को क्या हो गया है

- कुमार शिव


एड़ियों को पुतलियों को उंगलियों को देख लें

आओ इस जर्जर शहर की पसलियों को देख लें


खून को क्या हो गया है क्यों नहीं आता उबाल

बंद गलियों की नसों को धमनियों को देख लें


देखने को जब यहाँ कुछ भी नहीं है तो चलो

खिलखिलाती थीं कभी उन खिड़कियों को देख लें


अब कहाँ वो सुरमई आखें वो चेहरे संदली

वक़्त बूढ़ा हो चला है झुर्रियों को देख लें


बहुत मुमकिन है बचे हों कुछ कटे सर और भी

आओ हम अच्छी तरह से बस्तियों को देख लें


बोलता है उदास सन्नाटा

>> Sunday, 10 July 2011

'नज़्म'

बोलता है उदास सन्नाटा
  •     कुमार शिव



रूबरू है शमा के आईना
बंद कमरे की खिड़कियाँ कर दो
शाम से तेज चल रही है हवा



 ये जो पसरा हुआ है कमरे में
कुछ गलतफहमियों का अजगर है
ख्वाहिशें हैं अधूरी बरसों की
हौसलों पर टिका मुकद्दर है



रात की सुरमई उदासी में
ठीक से देख मैं नहीं पाया
गेसुओं से ढका हुआ चेहरा
आओ इस काँपते अँधेरे में
गर्म कहवा कपों में भर लें हम
मास्क चेहरों के मेज पर रख दें
चुप रहें और बात कर लें हम



महकती हैं बड़ी बड़ी आँखें
हिल रहे हैं कनेर होटो के
बोलता है उदास सन्नाटा






हरा बाँस वन

>> Saturday, 2 July 2011

'कविता'


हरा बाँस वन



मैं ने देखा है
पहाड़ों को पक्षियों की तरह उड़ते हुए
और भीड़ पर धमाधम गिरते हुए

जब चलती है काली आंधी

एक साथ उड़ते हैं पहाड़
रेगिस्तान बन जाते हैं शहर

चलने लगते हैं दरख़्त एक दूसरे की शाखें पकड़े
तेजी से दौड़ती हैं काँटेदार झाड़ियाँ

अचानक उठ खड़ी होती है

लेटी हुई नदी
बिखर जाती हैं उस की खुली लटें
बाँस वन की भुजाओँ पर
 

नदी का तेज बहाव
लटका देता है
मृत देहों के चिथड़े
बाँसों पर

धीरे धीरे हरा बाँस वन
नदी के लाल पानी में डूबने लगता है

          • कुमार शिव

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