'गीत' तुमने छोड़ा शहर ...
>> Monday, 27 June 2011
‘गीत’
तुम ने छोड़ा शहर ...
- कुमार शिव

धूप दुबली हुई
पीलिया हो गया है अमलतास को
बीच में जो हमारे ये दीवार थी
पारदर्शी इसे वक्त ने कर दिया
शब्द तुम ले चलीं गुनगुनाते हुए
मैं संभाले रहा रिक्त ये हाशिया
तुमने छोड़ा शहर
तम हुआ चम्पई
नीन्द आती नहीं है हरी घास को
अश्वरथ से उतर कर रुका द्वार पर
पत्र अनगिन लिए सूर्य का डाकिया
फिर मेरा नाम ले कर पुकारा मुझे
दूरियों के नियम फेंक कर चल दिया
तुम ने छोड़ा शहर
उड़ रही है रुई
ढक रहे फूल सेमल के आकाश को
दौड़ता ही रहा अनवरत मैं यहाँ
तितलियों जैसे क्षण हाथ आए नहीं
जिन्दगी का उजाला छिपा ही रहा
दिन ने मुख से अधेंरे हटाए नहीं
तुमने छोड़ा शहर
याद बन कर जूही
फिर से महका रही घर की वातस को

भीड़ के इस समन्दर में हम अजनबी
एक अदृश्य बंधन में बंध कर रहे
जंगलों में रहे, पर्वतों में रहे
हम जहाँ भी रहे कोरे कागज रहे
तुमने छोड़ा शहर
नाव तट से खुली
शंख देखा किए रेत की प्यास को
6 comments:
इतनी सुंदर रचना पढ़वाने के लिए आभार.
गुरुवर जी, आपने न्यायाधीश श्री शिव कुमार शर्मा की रचनाओं से समय-समय पर अपने ब्लॉग में अवगत कराया था और अब उनकी रचनाओं से सुसज्जित ब्लॉग का निर्माण करके बहुत अच्छा कार्य किया है. इससे एक न्यायाधीश के कवि हरदय को समझने में बहुत मदद मिलेगी. इसके साथ ही एक शिकायत है कि मै उपरोक्त ब्लॉग का अनुसरणकर्त्ता नहीं बन पा रहा हूँ.कृपया मदद करें.
तुमने छोड़ा शहर ,नाव तट से खुली ,
शंख देखा किए रेत की प्यास को ,
हम जहां भी रहे कोरे कागज़ रहे ।
सुन्दर भाव भूमि अनुभूतियों के बिम्ब ,मन को छूती सौंधी सी रचना .
वाह, क्या बात है।
padh kar aanand milaa
a a b h a a r .
बहुत सुन्दर गीत है ...
पढ़वाने के लिए आभार
आशीष
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